Sunday, December 21, 2014

भीड़तंत्र की लोकतंत्र में हँसी उड़ाएं मेरे गीत -सतीश सक्सेना

आग लगाई संस्कारों में 
सारी शिक्षा भुला गुरु की
दाढ़ी तिलक लगाये देखो  
महिमा गाते हैं,कुबेर की !
डर की खेती करते,जीते 
नफरत फैला,निर्मम गीत !
करें दंडवत महलों जाकर,बड़े महत्वाकांक्षी गीत !

खद्दर पहने नेतागण अब
लेके चलते , भूखे खप्पर,
इन पर श्रद्धा कर के बैठे
जाने कब से टूटे छप्पर !
टुकुर टुकुर कर इनके मुंह 
को,रहे ताकते निर्बल गीत !
कौन उठाये  नज़रें अपनी , इनके टुकड़े खाते  गीत !

धन कुबेर और गुंडे पाले 
जितना बड़ा दबंग रहा है
अपने अपने कार्यक्षेत्र में 
उतना ही सिरमौर रहा है 
भेंड़ बकरियों जैसी जनता,
डरकर इन्हें दिलाती जीत !
पलक झपकते ही बन जाते सत्ताधारी, घटिया गीत !

जनता इनके पाँव  चूमती
रोज सुबह दरवाजे जाकर
किसमें दम है आँख मिलाये 
बाहुबली के सम्मुख आकर  
हर बस्ती के गुंडे आकर 
चारण बनकर ,गाते गीत !
हाथ लगाके इन पैरों को, जीवन धन्य बनाते गीत !

लोकतंत्र के , दरवाजे पर 
हर धनवान जीतकर आया
हर गुंडे को पंख लग गए 
जब उसने मंत्री पद पाया
अनपढ़ जन से वोट मांगने,
बोतल ले कर मिलते मीत !
बिका मीडिया हर दम गाये, अपने दाताओं के गीत !

खादी कुरता, गांधी टोपी,
में कितने दमदार बन गये  !
श्रद्धा और आस्था के बल 
मूर्खों के  सरदार बन गये !
वोट बटोरे झोली भर भर, 
देशभक्ति के बनें प्रतीक ! 
राष्ट्रप्रेम भावना बेंच कर ,अरबपति बन जाएँ गीत !

Monday, June 02, 2014

दुनियां वाले कैसे समझें , अग्निशिखा सम्मोहन गीत -सतीश सक्सेना

कलियों ने अक्सर बेचारे
भौंरे  को बदनाम किया !
खूब खेल खेले थे फिर भी  
मौका पा अपमान किया !
किसने शोषण किया अकेले,  
किसने फुसलाये थे गीत !
किसको बोलें,कौन सुनेगा,कहाँ से हिम्मत लाएं गीत !

अक्सर भोली ही कहलाये
ये सजधज के रहने वाली !
मगर मनोहर सुंदरता में 
कमजोरी , रहती हैं सारी !
केवल भंवरा ही सुन पाये, 
वे  धीमे आवाहन  गीत !
दुनियां वाले कैसे समझें, कलियों के सम्मोहन गीत !


नारी से आकर्षित  होकर
पुरुषों ने जीवन पाया है !
कंगन चूड़ी को पहनाकर
मानव ने मधुबन पाया है !
मगर मानवी समझ न पायी, 
कर्कश,निठुर, खुरदुरे गीत !
अधिपति दीवारों का बनके , जीत के हारे पौरुष गीत !

स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम
देवो न जानाति कुतो मनुष्यः
शक्तिः एवं सामर्थ्य-निहितः 
व्यग्रस्वभावः , सदा मनुष्यः !
इसी शक्ति की कर्कशता में, 
दच्युत रहते पौरुष गीत !
रक्षण पोषण करते फिर भी, निन्दित होते मानव गीत !

निर्बल होने के कारण ही 
हीन भावना मन में आयी 
सुंदरता  आकर्षक  होकर  
ममता भूल, द्वेष ले आयी 
कड़वी भाषा औ गुस्से का 
गलत आकलन करते मीत ! 
धोखा  खाएं आकर्षण में , अपनी  जान गवाएं गीत !

दीपशिखा में चमक मनोहर
आवाहन  कर, पास बुलाये !
भूखा प्यासा , मूर्ख  पतंगा , 
कहाँ पे आके, प्यास  बुझाये  ! 
शीतल छाया भूले घर की,
कहाँ सुनाये जाकर गीत !  
जीवन कैसे आहुति देते , कैसे जलते  परिणय गीत !

Friday, January 10, 2014

मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत -सतीश सक्सेना

हम तो केवल हंसना चाहें 
सबको ही, अपनाना चाहें 
मुट्ठी भर जीवन  पाए  हैं 
हंसकर इसे बिताना चाहें 
खंड खंड संसार बंटा है , 
सबके अपने अपने गीत ।  
देश नियम,निषेध बंधन में,क्यों बांधा जाए संगीत ।  

नदियाँ,झीलें,जंगल,पर्वत
हमने लड़कर बाँट लिए।  
पैर जहाँ पड़ गए हमारे ,
टुकड़े,टुकड़े बाँट लिए।  
मिलके साथ न रहना जाने,
गा न सकें,सामूहिक गीत ।  
अगर बस चले तो हम बांटे,चांदनी रातें, मंजुल गीत । 

कितना सुंदर सपना होता 
पूरा विश्व  हमारा  होता । 
मंदिर मस्जिद प्यारे होते 
सारे  धर्म , हमारे  होते ।  
कैसे बंटे,मनोहर झरने,
नदियाँ,पर्वत,अम्बर गीत । 
हम तो सारी धरती चाहें , स्तुति करते मेरे गीत ।  

काश हमारे ही जीवन में 
पूरा विश्व , एक हो जाए । 
इक दूजे के साथ  बैठकर,
बिना लड़े,भोजन कर पायें ।
विश्वबन्धु,भावना जगाने, 
घर से निकले मेरे गीत । 
एक दिवस जग अपना होगा,सपना देखें मेरे गीत । 

जहाँ दिल करे,वहां रहेंगे 
जहाँ स्वाद हो,वो खायेंगे ।
काले,पीले,गोरे मिलकर  
साथ जियेंगे, साथ मरेंगे । 
तोड़ के दीवारें देशों की, 
सब मिल गायें  मानव गीत । 
मन से हम आवाहन करते, विश्व बंधु बन, गायें गीत । 

श्रेष्ठ योनि में, मानव जन्में  
भाषा कैसे समझ न पाए । 
मूक जानवर प्रेम समझते  
हम कैसे पहचान न पाए । 
अंतःकरण समझ औरों का,
सबसे करनी होगी प्रीत ।  
माँ से जन्में,धरा ने पाला, विश्वनिवासी बनते गीत ?

सारी शक्ति लगा देते हैं  
अपनी सीमा की रक्षा में, 
सारे साधन, झोंक रहे हैं
इक दूजे को,धमकाने में,
अविश्वास को दूर भगाने,
सब मिल गायें मानव गीत ।  
मानव कितने गिरे विश्व में, आपस में रहते भयभीत ।

मानव में भारी  असुरक्षा 
संवेदन मन,  क्षीण  करे । 
भौतिक सुख,चिंता,कुंठाएं   
मानवता  का  पतन करें ।  
रक्षित कर,भंगुर जीवन को, 
ठंडी साँसें  लेते  मीत  ।  
खाई शोषित और शोषक में, बढती देखें मेरे गीत ।  

अगर प्रेम,ज़ज्बात हटा दें 
कुछ न बचेगा  मानव में । 
बिना सहानुभूति जीवन में
क्या रह जाए, मानव में ।
पशुओं जैसी मनोवृत्ति से, 
क्या प्रभाव डालेंगे गीत !  
मानवता खतरे में  पाकर, चिंतित रहते मानव गीत । 

भेदभाव ही, बलि चढ़ जाए 
सारे राष्ट्र साथ मिल  जाएँ, 
तनमनधन न्योछावर करके  
बच्चों से निश्छल बन जाएँ , 
बे हिसाब रक्षा धन बाँटें , 
दुखियारों में, बन के मीत ।
प्रतिद्वंदिता त्यागकर इक दिन साथ रहेंगे बैरी गीत !
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